लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
|
8 पाठकों को प्रिय 432 पाठक हैं |
जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
मानवता आज कहाँ है?
जलकर खाक हो गई है!
उसी खाक पर विजय-निशान उड़ रहे हैं।
धर्म की विजय!
दुनिया में सबसे विशाल गणतांत्रिक देश के तौर पर भारत का सिर्फ नाम ही नहीं था, सैकड़ों भाषा, संस्कृति का सहनशील सह-अवस्थान का विराट प्रतीक था भारत! इसी भारत के एक वर्ग ने आज प्रमाणित किया है कि धर्म से बड़ी न जाति होती है, न इंसान, न इंसानियत! जिस गुजरात दंगे में सैकड़ों-हज़ारों लोगों की मौत हो गई, वे सारी मौतें रोकने का क्या कोई उपाय नहीं था? ज़रूर था! गोधरा में ट्रेन के डिब्बे में नृशंस हत्याकांड के बाद, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी यह बात बखूबी जानते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के ज़बर्दस्त अड्डेवाले इस राज्य में अब संख्यालघु संप्रदाय का सर्वनाश होने ही वाला है। यह जानते हुए भी उन्होंने सतर्क रहने की कोई व्यवस्था नहीं की, कहीं भी कयूं जारी नहीं किया। रोम जब जल रहा था, नीरो बंसरी बजा रहा था। गुजरात जब जल रहा था, उस वक्त मोदी बाँसुरी बजा रहे थे या नहीं, पता नहीं, लेकिन, अगर बजा रहे होते, तो शायद ढेरों जानें बच जातीं। खासकर वे अगर अपनी पुलिसवाहिनी के साथ बाँसुरी बजाते, क्योंकि उस बीभत्स दंगे में मोदी की सांप्रदायिक पुलिसवाहिनी सिर्फ निष्क्रिय खड़ी ही नहीं रही, बल्कि उसने खुद भी कई क्षेत्रों में उस हत्या-यज्ञ में हिस्सा लिया। पाँच सौ जीते-जागते मुसलमानों को जिंदा जला डाला। आँखों के सामने देखते ही देखते शिशुओं को जला डाला। शिशु जब जलाए जाते हैं, तो वे अकेले नहीं जलते, उनके साथ भविष्य भी जल जाता है। कोई भी भारत के भविष्य को आग की लपटों से बचा नहीं पाया। उस पर से ताज़ा ज़ख्म पर नमक छिड़ककर, गुजरात-दंगों के दमन में नरेंद्र मोदी की जानबूझकर उदासीनता, शिथिलता और निष्क्रियता के लिए बीजेपी सरकार के नेता मंत्री वर्ग ने उनकी आलोचना करने के बजाय खूब वाहवाही की।
कौन है यह राम, जिसकी भक्ति में इंसान इस कदर पागल हुआ जा रहा है? परीकथा का एक चरित्र होने के अलावा, और कुछ तो नहीं है! इन राम के लिए आज सिर्फ राममंदिर निर्माण की ही तैयारियाँ नहीं, रामराज्य तैयार करने की साजिश भी चल रही है। इस साजिश को और भड़का देने के लिए सत्ताधारी लोगों की कमी नहीं है। रामराज्य तैयार हो जाए, तो राम का कोई फायदा होना है या तैयार करने वालों का? इसमें किसी का भी फ़ायदा नहीं है; किसी की भी विजय नहीं है। विजय सिर्फ मूर्खता की है। मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाए जाते हैं; मस्जिद तोडकर मंदिर! इस तोड़-फोड में इंसान सिर्फ अपने को ही नहीं तोडता. सभ्यता को भी तोड़-फोड़ डालता है। सारा कुछ तोड़-फोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर डालता है, छिन्न-भिन्न कर डालता है। इंसान के प्रति इंसान की श्रद्धा नष्ट करने में. सबसे अधिक जिम्मेदार है-धर्मांधता! दुनिया के इतिहास में धर्मांधता ही सर्वाधिक रक्तपात, सर्वाधिक मृत्यु के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है। बहुतों का कहना है, धर्म अगर निर्मूल हो जाए, तो हिंसा, विद्वेष, नृशंसता और बर्बरता भी निर्मूल हो जाएगी। लेकिन धर्म को निर्मूल नहीं किया जाता, क्योंकि धर्म इतिहास होता है। निर्मूल तो इंसान की अज्ञानता और मूर्खता को किया जा सकता है! इसके लिए शिक्षा दरकार है। वैसे शिक्षा में भी रकम-फेर होता है। मदरसे में शिक्षित होकर या रामकृष्ण मिशन में दीक्षित होकर, ज़्यादातर इंसान और कुछ भले विसर्जित कर दे, लेकिन मूर्खता का विसर्जन नहीं कर पाते। वैसे मैं यह दावा भी नहीं करती कि स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय की शिक्षा सभी इंसानों को सचमुच शिक्षित या सभ्य बनाती है। लिखना-पढ़ना न सीखने के बावजूद, लालन फकीर मानवता के गीत गाते रहे, ऊरजअली मतब्बुर सच की खोज में जुटे रहे। लेकिन लिखाई-पढ़ाई सीखकर भी लालकृष्ण आडवाणी ऐसा न कर सके! गुलाम आयम भी नाकामयाब रहा। सच्चे अर्थों में शिक्षित होने के लिए, स्वस्थ दिमाग, चेतना का विकास बोध ज़रूरी है।
गुजरात में हिंदू कट्टरवादियों ने जिस अमानवीय वारदात को अंजाम दिया, बंगलादेश के मुस्लिम कट्टरवादी भी वैसी वारदातें कर सकते हैं, इसके उन लोगों ने अनगिनत प्रमाण दिए हैं। कटटरवादियों के चिंतन-चेतना में घणा का प्राधान्य होता है। वे लोग मन में तीखी नफरत लिए मंदिर-मस्जिद चकनाचूर करने के लिए आगे बढ़ते हैं। वे लोग संख्यालघु संप्रदायों का घर-द्वार जलाकर खाक कर देते हैं उन लोगों को बेघर कर देते हैं। उन्हें निर्वासित कर देते हैं; उन लोगों के साथ बलात्कार करते हैं उन लोगों की हत्या कर डालते हैं। क्यों करते हैं ऐसा? क्योंकि संख्यालघु संप्रदाय का ख्याल है कि उनके अपने धर्म से बड़ा, अन्य कोई धर्म नहीं है। वे सोचते हैं, भिन्न धर्म के लोगों पर अत्याचार बरसाने से, उनके धर्म की जय होती है। इंसान के प्रति प्रचंड नफरत पाले हुए, वे लोग धर्म का जयगान करते हैं। वे लोग भगवान या अल्लाह को हिंस्रता, घृणा, नृशंसता के माध्यम से पाना चाहते हैं। लेकिन, इस ढंग से क्या भगवान या अल्लाह को हासिल किया जा सकता है।
सबसे बढ़कर, मानव सत्य, उससे ऊपर कोई नहीं! विवेकवान इंसान की यह उपलब्धि, यह सच्ची उक्ति, आज की नहीं है, सैकड़ों साल पहले की है! दिन जैसे-जैसे गुज़रते जा रहे हैं। इंसान क्या अपना विवेक खोता जा रहा है? हम क्या आगे की तरफ बढ़े या पीछे अँधेरे-काले अतीत की तरफ मुड़ जाएँ? धर्म के नाम पर निर्ममता या बर्बरता के दिन क्या अभी भी ख़त्म नहीं हुए? अतीत में एकेश्वरवादियों ने बह-ईश्वरवादियों को निश्चिन्ह किया है। यहूदी, ईसाई, मुसलमान-ये सभी तीनों एकेश्वरवादी धर्मों के लोगों ने एक-दूसरे का काफी-काफी खून बहाया है। ईसाई धर्म के कैथलिक और प्रोटेस्टेंट लोग एक-दूसरे की गर्दन काटते रहे। ये तमाम बर्बरताएँ अब सभ्य देशों में अतीत हैं! लेकिन हिंसा, नृशंसता, निरर्थक रक्तपात में भारतीय उपमहादेश आज भी सभ्यता को शर्मिंदा कर रहा है। अगर धार्मिक उग्रवादियों को भारत के इतिहास की जानकारी होती, तो मुमकिन है कि वे लोग इन नृशंस हत्याकांडों से विरत रहते। भारत में हिंदू धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म-सभी धर्म भारत के बाहर से आए हैं। वेद, बाइबिल, कुरान-किसी भी ग्रंथ की रचना, भारत में नहीं हुई। आर्य लोग भारत में वेद लेकर आए। मध्य-प्राच्य से मुसलमान कुरान लेकर आए, ईसाई यूरोप से हाथ में बाइबिल लेकर आए। भारत के लोग एक-एक धर्म में दीक्षित हो गए। अगर अतीत में विभिन्न अंचलों से कोई भारत में भ्रमण करने न आता तो यहाँ इंसान को प्राचीन धर्म में ही विश्वासी होकर रह जाना पड़ता। या सब लोग भारतवर्ष के बौद्ध धर्म में ही दीक्षित होते। कौन, किस धर्म में दीक्षित हुआ, किसका धर्म, किस धर्म से ज़्यादा बेहतर है, इन सबको प्रमाणित करने के लिए क्या खूनाखूनी ज़रूरी है? मनुष्यत्व ही प्रमाणित कर सकता है कि कौन-सा धर्म महान् है; कौन-सा धर्म, किसे, क्या सीख देता है! मुसलमान अगर किसी हिंदू की हत्या करे या ईसाई का खून करे तो इससे इस्लाम को महान् धर्म के तौर पर मान्यता मिल जाती है। ऐसी बात नहीं है। उसी तरह, हिंद अगर मसलमानों को जलाकर फूंक दे, ईसाइयों की हत्या करे, तो इसमें हिंदू धर्म की कोई विजय नहीं होती। इंसानियत जब लुप्त हो जाती है, तभी इंसान ऐसा जघन्य काम करता है। धर्म इंसानियत का लोप नहीं करता। अगर कोई विश्वास, इंसानियत को तबाह कर दे, तो वह विश्वास बेशक, नुकसानदेह होता है। मानव सामाजिक प्राणी है। अपने व्यक्तिगत विश्वास के साथ, समाजहीन जीवनयापन करना, किसी भी इंसान के लिए संभव नहीं है। समाज में रहना-सहना है, तो समाज के विभिन्न इंसानों के भिन्न विश्वास, भिन्न मतों के प्रति श्रद्धा अर्पित करें, वर्ना अपना विश्वास और अपने मतवाद पर, दूसरों की श्रद्धा अर्जित करना, कतई संभव नहीं है! भारतीय उपमहादेश की सच्चाई यह है कि यहाँ विभिन्न धर्म, विभिन्न संस्कृति, विभिन्न भाषाओं के एक ही समाज में मिलजुलकर रहना-सहना! अगर इसे अस्वीकार किया, तो शांति के बजाय अशांति कायम होगी। इसका प्रमाण भी हमें अनगिनत बार मिल चुका है। अब और कितना? इस बार 'रोको! रोको' यह मर्मघाती करुण विनाश! जाति के खून में दुबारा निश्छल ममता छलक उठे, जाति के खून में दुबारा कठोर ईमानदारी आए, जाति के प्राण में समता की सटीक वासना जागे।
बंगलादेश के मुसलमान कट्टरवादी जब देश से संख्यालघु हिंदुओं को खदेड़ना चाहते हैं, अपने दिल में शायद कोई अजीब सपना लेकर ही ऐसी हरकत करते हैं। उनका ख्याल है कि बंगलादेश अगर सिर्फ और सिर्फ मुसलामनों का देश हो जाए, तो वे लोग बेहद निश्चित और सुरक्षित तरीके से इस देश में वास कर सकेंगे। लेकिन सिर्फ मुसलमान होने भर से किसी देश में शांतिपूर्ण तरीके से रहना-सहना संभव नहीं है, इसका प्रमाण सन् इकहत्तर की जंग है! अगर कुछ और दूर तक नज़र डालूँ। मध्य-प्राच्य की तरफ, तो क्या नज़र आता है? मुसलमान देशों में भाईचारगी का अभाव, इस कदर जाहिर है कि मौका पाते ही, एक मुसलमान, दूसरे मुसलमान पर टूट पड़ता है। सालों-साल जंग का सिलसिला जारी रहता है; बर्बादी-नुकसान होता रहता है। रक्तपात चलता रहता है; घृणा का विस्फोट होता रहता है। तो क्या धर्म, घृणा से कभी मुक्ति नहीं देता?
जो लोग अल्लाह या भगवान में विश्वास करते हैं, उन लोगों को क्या यह पक्का विश्वास है कि इंसान, भगवान या अल्लाह की सृष्टि है? बेशक, लोग यही विश्वास करते हैं। ऐसे में भगवान या अल्लाह के हाथों रचे हुए जीवन की, अंधाधुंध हत्या करने, रचे हुए जीवन के प्रति घृणा पाले रहने से क्या अल्लाह या भगवान को खुश किया जा सकता है? धर्म ग्रंथों में चाहे कुछ भी लिखा हो, धर्मग्रंथों में युद्ध का चाहे जितना भी जयगान गाया जाए, विवेक का वर्जन न करके, अगर स्वस्थ दिमाग से सोचा जाए तो बेहद साधारण से सवाल का एक जवाब तो मिल ही जाता है। घृणा आखिर किसे जन्म देती है? घृणा, घृणा को ही जन्म देती है, प्यार-मुहब्बत को जन्म नहीं देती। इंसान के प्रति इंसान का प्यार या श्रद्धा न हो तो यह दुनिया रहने लायक नहीं रह जाती। इंसान अगर इंसान के प्रति घृणा, नृशंसता, बर्बरता ही उगलता रहे, तो दुनिया की शांति नष्ट हो जाती है और इसके लिए कोई ईश्वर या भगवान या अल्लाह नहीं, खुद इंसान ही जिम्मेदार होता है।
तुम बन जइयो गहिन गांग, हम डूब मरी
जीवन अगर फूल है, तो प्यार उस फूल का मधु!-विक्टर ह्यूगो
|
- आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
- मर्द का लीला-खेल
- सेवक की अपूर्व सेवा
- मुनीर, खूकू और अन्यान्य
- केबिन क्रू के बारे में
- तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
- उत्तराधिकार-1
- उत्तराधिकार-2
- अधिकार-अनधिकार
- औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
- मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
- कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
- इंतज़ार
- यह कैसा बंधन?
- औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
- बलात्कार की सजा उम्र-कैद
- जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
- औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
- कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
- आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
- फतवाबाज़ों का गिरोह
- विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
- इधर-उधर की बात
- यह देश गुलाम आयम का देश है
- धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
- औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
- सतीत्व पर पहरा
- मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
- अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
- एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
- विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
- इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
- फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
- फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
- कंजेनिटल एनोमॅली
- समालोचना के आमने-सामने
- लज्जा और अन्यान्य
- अवज्ञा
- थोड़ा-बहुत
- मेरी दुखियारी वर्णमाला
- मनी, मिसाइल, मीडिया
- मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
- संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
- कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
- सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
- 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
- मिचलाहट
- मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
- यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
- मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
- पश्चिम का प्रेम
- पूर्व का प्रेम
- पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
- और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
- जिसका खो गया सारा घर-द्वार